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अपनी भाषा का प्रयोग व्यवहारिक सुविधा ही नहीं अपने स्वत्व की अभिव्यक्ति भी है – डॉ. मोहन भागवत
Last Updated On: 06/04/2018
नई दिल्ली, 6 अप्रैल। अपनी भाषा का प्रयोग केवल व्यवहारिक सुविधा नहीं है अपितु अपने स्वत्व की अभिव्यक्ति है। स्व की अभिव्यक्ति मातृभाषा में ही संभव है। भाव विदेशी भाषा में व्यक्त नहीं होते। लोकव्यवहार में बोली जाने वाली भाषाओं का अनुवाद भाषा के भाव के अनुरूप नहीं हो पाता। यह विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने "जनता को जनता की भाषा में न्याय" विषय पर अपने उद्बोधन में व्यक्त किये।
शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास द्वारा केदारनाथ साहनी सभागार में आयोजित सम्मलेन में में मुख्य अतिथि के नाते बोलते हुए उन्होंने बताया की आजादी की लड़ाई में बिरसा मुंडा की जेल में संदेहास्पद स्थिति में मृत्यु हो गयी थी, उनके साथ पकड़े गये 241 मुन्डावी बोली बोलने वाले क्रांतिकारियों के साथ उनकी भाषा के भाषांतर करने वाले ना होने के कारण अंग्रेजों द्वारा चलाए जा रहे न्यायालय के कारण उम्रकैद का अन्याय हो गया था। लेकिन वो ब्रिटिशर्स का राज था, अब तो अपना राज है, न्यायालयों सहित सब जगह अपनी बात स्वतंत्र रूप से अपनी भाषा में रखनी चाहिए। देश में प्राचीन काल से इतनी भाषाएँ होते हुए भी यहाँ लोगो को अन्य प्रान्तों से संपर्क में कोई कठिनाई नहीं आई। सुदूर दक्षिण के केरल से मलयाली भाषी लोग हिमालय की तीर्थ यात्राएं करते रहे हैं, काशी के हिन्दी भाषी लोग रामेश्वरम में कावड़ अर्पित करने जाते रहे हैं, संपर्क के लिए भाषा को लेकर यहाँ कोई मतभेद इतिहास में नहीं दिखता। उन्होंने बताया कि विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम अंगरेजी होने से बच्चों के ऊपर अनावश्यक बोझ पड़ने के कारण उनका बौद्धिक विकास रुक जाता है वह ज्ञान विज्ञान का मौलिक चिंतन नहीं कर पाते। उन्होंने आह्वान किया कि हम अपने से शुरुआत करें कि परिवार में तथा स्वभाषी लोगों से मातृभाषा में ही बात करें।
शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के राष्ट्रीय संयोजक श्री अतुल कोठारी ने विषय प्रस्तुतिकरण करते हुए बताया की 2012 में सर्वप्रथम भारतीय भाषा आन्दोलन का विषय उठाया गया। क़ानून में प्रावधान है कि जिला, सत्र न्यायालय क्षेत्रीय भाषा में काम करें। लोगों को लोगों की भाषा में न्याय नहीं मिलने के कारण कई कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है। धारा 348 -2 में प्रावधान है न्यायालयों में अंगरेजी के साथ-साथ हिंदी में भी न्यायिक फैसले की प्रति उपलब्ध करवाई जाए। लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश एवं राजस्थान इन चार राज्यों को छोड़कर अन्य राज्यों में इसका पालन नहीं हो रहा। जब संसद में भाषा को यंत्र के माध्यम से अपनी भाषा में परिवर्तन की व्यवस्था की जा सकती है तो सभी उच्च न्यायालयों में भी लोगों के लिए यह हो सकती है। 20-25 करोड़ रुपये कोई ज्यादा राशि नहीं है इस काम के लिए, किन्तु सवाल इच्छा शक्ति का है, करना चाहते हैं या नहीं। न्याय 130 करोड़ जनता के लिए है या 200 – 300 न्यायाधीशों के लिए, यह सोचने का विषय है। इस समय इसके लिए अनुकूल वातावरण है, हमारे उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति ने इस दिशा में पहल की है।
पांच राज्यों में न्यायाधीश रह चुके न्यायमूर्ति प्रमोद कोहली ने बताया कि यदि आईएएस स्थानीय भाषा सीख सकते हैं तो न्यायाधीश भी सीख सकते हैं, भाषा को समझे बिना वहां के कल्चर को समझना कठिन है। न्यायिक प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए स्थानीय भाषा में भी नियम और क़ानून बना कर, स्थानीय लोगों को उनकी भाषा में न्याय उपलब्ध करवाने की आवश्यकता है।
इस अवसर पर डॉ. मनमोहन वैद्य, श्री अनिरुद्ध देशपांडे, विशिष्ट अतिथि के रूप में श्री हरिहरन नय्यर, श्री दीनानाथ बत्रा, अधिवक्ता परिषद् के अध्यक्ष श्री जॉयदीप रॉय, श्री कामेश्वर मिश्र क्षेत्रीय संयोजक, प्रतिभा वर्मा प्रान्त संयोजिका शिक्षा संस्कृति न्यास, तथा बड़ी संख्या में न्यायविद, शिक्षाविद एवं बुद्धिजीवी उपस्थित थे।
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